अपराध, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, न वह स्त्री का होता है और न पुरुष का। उसका कोई लिंग नहीं होता। अपराध केवल अपराध होता है और उसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए। बीते दिनों में जो घटनाएं सामने आईं—अतुल सुभाष और सौरभ राजपूत के साथ हुए क्रूर व्यवहार की निंदा जितनी की जाए, कम है। इन घटनाओं के आरोपी चाहे जो भी हों, उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए, परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि कुछ मामलों के आधार पर संपूर्ण नारी जाति को दोषी ठहराया जाए।
हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ महिलाओं के खिलाफ हर दिन कई अपराध होते हैं। बलात्कार, घरेलू हिंसा, एसिड अटैक, मानसिक और शारीरिक शोषण जैसे अपराधों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। हर दिन अख़बारों में सैकड़ों ऐसी खबरें छपती हैं जिनमें महिलाओं के साथ क्रूरतम अत्याचार हुए होते हैं, लेकिन वे समाज का ध्यान खींचने में विफल रहती हैं। वजह स्पष्ट है—हम एक पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रसित समाज में रहते हैं जहाँ महिलाओं का दर्द हमेशा गौण माना जाता है।
जब अतुल या सौरभ के साथ अपराध हुआ, तो समाज ने तुरंत प्रतिक्रिया दी, सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई, और ‘औरतों पर सवाल’ खड़े कर दिए गए। वहीं जब हाल ही में बनारस जैसी विकसित शहर में एक लड़की के साथ 23 लड़कों ने मिलकर गैंगरेप किया, उसे नशा देकर एक सप्ताह तक प्रताड़ित किया, तब कोई आवाज़ नहीं उठी। न कोई आंदोलन, न कोई जनाक्रोश, न कोई विरोध।
क्या यह न्याय है? क्या यह समाज की वही चेतना है जो समानता और मानवाधिकार की बातें करती है?
महिलाएं वर्षों से अत्याचार सहती आई हैं। उन्हें देवी का रूप माना जाता है, लेकिन व्यवहार में उनके साथ सदैव तुच्छ दर्जे का व्यवहार किया जाता है। जब एक महिला अपराध करती है, तो पूरे समाज की महिलाओं को कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है। लेकिन जब कोई पुरुष अपराध करता है—बलात्कार, हत्या, घरेलू हिंसा—तो उसे ‘व्यक्तिगत मामला’ कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है।
ऐसे समाज में न्याय और निष्पक्षता की उम्मीद करना कठिन हो जाता है।
हमारे समाज की विडंबना यह है कि यहाँ ‘स्त्री होना’ ही एक अपराध बना दिया गया है। बलात्कार पीड़िता से सवाल किए जाते हैं—”कपड़े कैसे थे?” “रात को बाहर क्यों निकली?” “क्यों नहीं विरोध किया?” समाज दोषी को सजा देने के बजाय पीड़िता से सवाल करता है।
फिर जब कोई स्त्री अपराध करती है, तो यही समाज उसे नारीत्व से ही वंचित कर देता है। उसे ‘राक्षसी’, ‘कलंकिनी’ जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता है, और उसकी आड़ में सारी स्त्रियों को निशाना बनाया जाता है।
सच यह है कि हर स्त्री एक जैसी नहीं होती, जैसे हर पुरुष एक जैसा नहीं होता। न सभी स्त्रियाँ देवी हैं और न सभी पुरुष राक्षस। इंसान का मूल्यांकन उसके कर्म से होना चाहिए, न कि उसके लिंग से।
कानून का भी यही सिद्धांत है कि वह व्यक्ति के कार्य के अनुसार निर्णय करता है। अपराधी, चाहे पुरुष हो या महिला, उसे सजा मिलनी चाहिए। परंतु यह ज़रूरी है कि हम अपने सामाजिक दृष्टिकोण को भी कानून के समान निष्पक्ष बनाएं।
आज भी ऐसे अनगिनत मामले हैं, जहाँ महिलाएं अपराधों के शिकार होने के बावजूद रिपोर्ट दर्ज नहीं करवा पातीं। उन्हें धमकाया जाता है, बदनाम किया जाता है, और न्याय मिलने में वर्षों लग जाते हैं। वहीं जब कोई मामला पुरुष के साथ होता है, तो यह एक राष्ट्रीय बहस का विषय बन जाता है।
क्या इसका मतलब यह है कि पुरुष का दर्द सच्चा है और स्त्री का झूठा?
बिलकुल नहीं। हम सभी के लिए समान न्याय प्रणाली की आवश्यकता है।
आज जरूरत है समाज में ऐसी मानसिकता विकसित करने की, जहाँ अपराध को व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से देखा जाए, न कि संपूर्ण लिंग वर्ग के संदर्भ में। नारी को अब भी दबाया जा रहा है, उसे कमजोर समझा जाता है, लेकिन जिस दिन वह अपने आत्मसम्मान के लिए खड़ी होगी, वह रूप विनाशकारी भी हो सकता है।
जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ में नारी के बारे में लिखा गया है:
“नारी! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास-रजत-नग पग-तल में,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।”
यह भारतीय समाज की उस आदर्श नारी की छवि है जिसे श्रद्धा, विश्वास, प्रेम और करुणा का प्रतीक माना गया है। लेकिन जब उसे बार-बार ठेस पहुंचाई जाती है, उसके अधिकार छीने जाते हैं, तो वह विद्रोह करती है।
इतिहास गवाह है—रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, चाँद बीबी, या हाल ही की बहादुर बेटियाँ—जब नारी ने अन्याय के विरुद्ध हथियार उठाए हैं, तब साम्राज्य भी हिल गए हैं।
अब समय आ गया है कि समाज महिलाओं के साथ केवल संवेदना नहीं, समानता का व्यवहार करे। जो समाज महिलाओं को सशक्त करेगा, वही समाज प्रगतिशील होगा।
अंततः, हमें यह समझना होगा कि—
अपराध को लिंग से जोड़ना गलत है।
हर अपराध का विरोध होना चाहिए, चाहे वह किसी के साथ भी हो।
कानून और समाज दोनों को निष्पक्ष होना चाहिए।
किसी एक व्यक्ति के अपराध को पूरी जाति, धर्म या लिंग पर थोपना मानसिक रूप से अमानवीय है।
समाज को अब और कुंठित नहीं होना चाहिए। हमें ऐसे उदाहरण गढ़ने होंगे जहाँ अपराध का विरोध हो, न्याय की मांग हो, और मानवता की रक्षा हो।
क्योंकि जब तक अपराध को ‘अपराध’ नहीं, बल्कि ‘लिंग आधारित अपराध’ समझा जाएगा, तब तक समाज में न्याय और शांति की कल्पना अधूरी ही रहेगी।

बहुत शानदार लेख बहुत बधाई स्नेहा ख़ूब आगे बढ़ो.
प्रिया पाण्डेय 🫂